आदिवासियों के लिये आंदोलन और लेखन मेरा एक ही है
(रमणिका गुप्ता से कुसुमलता सिंह की बातचीत)
22 अप्रैल, 1930 को सुनाम (पंजाब) में जन्मी रमणिका गुप्ता अनेक सरकारी व गैर सरकारी संस्थाओं से संबद्ध रहीं। वे बिहार/झारखंड की पूर्व विधायक व विधान परिषद् की पूर्व सदस्य रह चुकी हैं। आज भी वे मजदूरों, आदिवासी, दलितों, महिलाओं व वंचितों के लिए कार्यरत हैं। कई देशों की यात्रायें। विभिन्न सम्मानों एवं पुरस्कारों से सम्मानित। आपने प्रचुर मात्रा में आदिवासी, दलित एवं स्त्री मुद्दों पर लेखन किया है। साथ ही अनेक पुस्तकों का संपादन। वर्तमान में आप रमणिका फाउंडेशन की अध्यक्ष हैं और 1985 से 'युद्धरत आम आदमी' (मासिक हिन्दी पत्रिका) का संपादन कर रही हैं।
इस साक्षात्कार के लिये औपचारिक सवाल मैं पहले से तैयार करके रमणिका जी को भेज चुकी थी। वे उसे देख पाई थीं या नहीं कह नहीं सकती। उनके घर पर उनसे बातचीत करने के दौरान कुछ पूरक या नए प्रश्न भी पैदा हुए जिसके संदर्भ में बातचीत कई घंटे चली। यह एक सुखद संयोग ही था कि वहाँ नरेन्द्र पुण्डरीक (माटी पत्रिका के प्रधान संपादक) से भी भेंट हुई। सच कहूँ तो रमणिका जी से उस समय की गई बातचीत पर एक लंबी पुस्तक बन सकती थी। जिसमें उनके द्वारा याद किये गये हर आदिवासी चरित्र का विवरण, आज की आदिवासियों की, दलितों की स्थिति पर असमंजस और विडंबना मुख्य विषय बन जाते। बहरहाल जो भी बात हो पाई उसे प्रश्न-उत्तर के क्रम में पिरोकर यहाँ दिया जा रहा है-- कुसुमलता सिंह
1. आप पंजाब के समृद्ध परिवार में जन्मी। आपका आदिवासियों के प्रति समर्पण का क्या कारण रहा?
उत्तर ---देखिये धनबाद के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में मैं जब गई तो उस समय मैं पूरी तरह घर की महिला के रूप में पहुँची। मुझे नृत्य का शौक था। कवितायें लिखती थी पर छपाती नहीं थी। छपाने का कभी ख्याल ही नहीं आया।(थोड़ा रुक कर बोलीं) लिखना तो मैंने 14 साल की उम्र में ही शुरू कर दिया था। मेरे पति लेबर डिर्पाटमेंट में अधिकारी थेहमारा ऑफिस कम रेजिडेंस था यानि दफ्तर के ही एक हिस्से रिहाइश थी। ऑफिस में ट्रेड युनियन वाले आते। ऑफिस के बाहर मजदूर नेताओं के नारे लगते। आदिवासी तीर-धनुष लिये अपनी पारंपरिक वेश-भूषा में आते। उनकी परेशानियों पर घर में चर्चा होती। लेबर मूवमेंट से जुड़े या पोलिटिकल लीडर आते। यही नहीं घर में कविता की गोष्ठियां भी होतीं। यह सब देखते हुए धीरे-धीरे मेरी रुचि आदिवासियों की समस्यायों के प्रति जागृत होने लगी। एक तरह से वह पूर्व पीठिका मेरे आने वाले समय के लिये तैयार हो रही थी। उन दिनों मैं खादी पहनती थी, कविता लिखती थी। तब एक ही मुख्य राजनीतिक पार्टी थी, वह थी काँग्रेस। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के एकाध मजदूर नेताओं से मुलाकात हुई। मैंने धीरे-धीरे सोशल सर्विस करना शुरू किया और बाद में सोशलिस्ट पार्टी से जुड़ी। उसके बाद हजारीबाग से चुनाव लडने गई। हजारीबाग की आबादी में