हिंदी साहित्य में उजला कोना
राधिकारमण प्रसाद सिंह (10 सितंबर 1890-24 मार्च 1971)
राधिकारमण प्रसाद सिंह का बिहार के सूर्यपुरा, शाहाबाद में संभ्रांत कुल में जन्म हुआ था हिंदी के मंच पर आप कहानी लेखक के रूप में 1913 के आसपास आए। उसी साल अपकी एक कहानी ‘कानों में कंगना' काशी की इंदू नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। यह अत्यंत राधिकारमण भावुकतापूर्ण, सरस रचना थी और इसने साहित्य-रसिकों का ध्यान आकर्षित किया। राधिकारमण प्रसाद सिंह की कहानियों का स्वर प्रायः आदर्शवादी रहा है। हिंदी के आधुनिक गद्यकारों में आपका प्रमुख स्थान है। इन्होंने कहानी, गद्य, काव्य, उपन्यास, संस्मरण, नाटक सभी विधाओं में साहित्य रचना की। इनका संबंध देश के अनेक साहित्यिक, सांस्कृतिक और शैक्षणिक संस्थाओं से रहा। इनके दो कहानी संग्रह' कुसुमांजलि' और 'गांधी टोपी' क्रमशः 1912 और 1938 में प्रकाशित हुए हैं। राधिकारमण प्रसाद सिंह की गणना हिंदी के यशस्वी-कथाकारों एवं विशिष्ट शेलीकारों में होती है। इन्होंने लगभग 50 वर्षों तक हिंदी की सेवा की है। इन्होंने अतिशय भावुकता में ही कभी-कभी काव्य-पथ का भी अनुसरण किया है। ‘नवजीवन' और 'प्रेमलहरी' आपके गद्य काव्यों का संग्रह है जो 1912 में प्रकाशित हुआ। इनके चार उपन्यास उल्लेखनीय हैं 'राम-रहीम', 'पुरुष और नारी','संस्कार','चुंबन और चांटा' जिनमें देश की सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों को अंकित करने की चेष्टा की गई है। इनके पात्र समाज और सभ्यता के विभिन्न वर्गों से लिए गए हैं और अपने-अपने स्तर पर प्रतिनिधित्व करते हैं इन उपन्यासों की भाषा-शैली भी बहुत लोकगम्य और रोचक है। इन्होंने जीवन और समाज के अनेक मनोरम संस्मणात्मक चित्र भी प्रस्तुत किए हैं जैसे ‘सावनी समां', 'टूटा तारा', 'सूरदास' । इसके साथ इनकी दा नाट्य कृतियां भी हैं-- 'अपना-पराया', 'धर्म की धुरी'। इसके अतिरिक्त भी आपकी कुछ अन्य कृतियां हैं--'नारी क्या एक पहेली,' 'पूरब और पच्छिम', 'हवेली और झोपड़ी', 'वे और हम', 'धर्म और मर्म', 'तब और अब', 'मॉडर्न कौन, सुंदर कौन', 'अपनी-अपनी नजर, अपनी-अपनी डगर', 'माया मिली न राम', 'अबला क्या ऐसी सबला?'। इन रचनाओं से यह स्पष्ट है कि इन्होंने साहित्य की सभी विधाओं को अंगीकृत किया है। इनकी सफलता का रहस्य इनकी मनोरम शैली है।
आप हिंदी के आधुनिक गद्यकारों में प्रकार की भावुकता प्रधान, काव्यात्मक, लच्छेदार तथा मुहावरेदार भाषा-शैली के कारण प्रसिद्ध हैं। तत्सम सामाजिक शब्द-योजना तथा तुकपूर्ण पदावली के कारण आपके लेखन में बंगला गद्य-शैली की झलक पाई जाती है। सन् 1917 में जब राधिकारमण प्रसाद सिंह बालिग हुए तब उनकी रियासत ईस्ट इंडिया कंपनी के बनाए कानून 'कोर्ट ऑव वार्ड्स' के बंधन से मुक्त हुई और वे उसके स्वामी हो गए। सन् 1920 के आसपास अंग्रेज सरकार ने राधिकारमण प्रसाद सिंह को राजा की उपाधि से विभूषित किया। आगे चलकर उनको सी.आई.ई की उपधि भी मिली। जब स्वतंत्रता संग्राम छिड़ा तब वे उसमें भी पीछे न रहे। गांधीवाद में उनकी गहरी आस्था थी। उसी समय वे आरा डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के प्रथम अध्यक्ष मनोनीत हुए। सन् 1927 से 1935 तक उन्होने उसमें रहकर अनेक सामाजिक एवं प्रशासनिक सुधार किए। गांधी जी के प्रभाव में आकर उन्होंने बोर्ड की चेयरमैनी छोड़ दी और भारत रत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के आगाह पर बिहार हरिजन सेवक संघ की अध्यक्षता ले ली। सन् 1935 में अपनी रियासत का सारा भार अपने अनुज पर सौंप कर उन्होंने साहित्य की आराधना की। इसके पहले ही 1920 में वे बेतिया में बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के पंद्रहवें अधिवेशन के अध्यक्ष मनोनीत हो गए थे। उक्त सम्मेलन के पंद्रहवें अधिवेशन के वे स्वागताध्यक्ष भी थे। वे आरा नागरी प्रचारिणी सभा के सभापति भी हुए। राधिकारमण प्रसाद सिंह का हिंदी गद्य साहित्य के उत्थान में योगदान निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है। .