आदिवासी भाषा विमर्श

आदिवासी भाषा विमर्श


• उपस्थिति आदरणीय मंच और सभागार में उपस्थिति सभी विद्वतजन! आज जिन दो पुस्तकों का लोकार्पण हुआ उनमें ककसाड़ का पांचवें वर्ष का पहला अंक, जो अक्टूबर 2020  अंक है और एक छोटी सी मुलाकात  पुस्तक


. _ककसाड़ का यह 49वां अंक है और इसमें हमेशा की तरह विविध साहित्यिक विधाओं का झरोखा सम्मिलित है। और एक छोटी सी मुलाकात यह हमारे आदिवासी लोक कलाकारों तथा वरिष्ठ साहित्यकारों के साथ ककसाड़ के मंच पर की गई बातचीत का संकलन है। जिन जनजातीय कलाकारों से साक्षात्कार लिया गए हैं उनके बनाए चित्र ककसाड़ का मुखपृष्ठ भी बनते गए। और ककसाड़ के आवरण चित्र से पत्रिका की अलग पहचान बनी और उन चित्रकारों को बहुत लोकप्रियता मिलीसाहित्यकारों के साक्षात्कार ने पत्रिका की गुणवत्ता में चार चांद लगा दिए। इसमें प्रकाशित लगभग सभी साहित्यकारों ने साक्षात्कार तो दिए ही इसके साथ ही रचनात्मक आर्शीवचन का सहयोग भी कियाअब आती हूं आज के विषय आदिवासी भाषा विमर्श पर जब इस कार्यक्रम की रूपरेखा बनी और विषय का चुनाव किया गया तब इसकी गंभीरता का अंदाजा नहीं था पर जल्दी ही समझ में आ गया कि यह विषय एक गहरे विश्लेषण और चिंतन-मनन की मांग करता है। असल में जितना रकबा आदमी, उतना ही भाषा का होता है। आदमी का कोई सवाल ऐसा नहीं, जो भाषा का न हो; क्योंकि आदमी और भाषा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक के बिना दूसरे का चलना असंभव है। आदमी खरा हो, तो _ भाषा भी खरी होगी। जितना आदमी अथाह, उतनी ही भाषा भी अथाह है। भाषा पर जितना हक पंडितों का उतना ही हक् अपढ़ का भी होता है। जल और भाषा का स्रोत एक है। फर्क सिर्फ इतना है कि जल के स्रोत पृथ्वी के भीतर हैं और भाषा के स्रोत आदमी के अंदर। सिमटि-सिमटि जल भरहिं तलावा की ही भांति भाषा आदमी में बूंद-बूंद कर एकत्र होती है। भाषा का पाषाड़-युग बोल-चाल है, किंतु इतिहास शुरू होता है, लिखने से। चाहे इसकी शुरुआत मिट्टी में रेखा खींचने से ही क्यों न हो। रेखा खींचने या निशान लगाने की शुरुआत ही आदमी के अपने बोलने को, लिखने की शुरुआत है। हजारों साल पुराने गुफाओं की चित्रकला भी आदिम भाषा है जिससे यह सत्य उजागर होता है कि मनुष्य ने अपनी बात को कहने की छटपटाहट को चित्रकला के माध्यम से प्रकट करने की कोशिश की। प्रजातियों के लाखों करोंडों सालों के विकास के दौरान पृथ्वी पर एक ऐसा जीव मनुष्य उत्पन्न हुआ जिसकी चेतना कुछ ऐसी थी कि उसमें भाषा के हो सकने की संभावना थी। यहां बताना चाहूंगी कि ककसाड़ का बीज भी जगदलपुर (बस्तर), छत्तीसगढ़ में की जाने वाली एक कार्यशाला के दौरान ही पड़ा और पनपा दिल्ली की विचार जमीन पर। समय था सितंबर 2013 का जब मुझे जगदलपुर (बस्तर) जाने का मौका मिला। अवसर था श्री पंकज चतुर्वेदी (संपादक), नेशनल बुक ट्रस्ट के द्वारा आयोजित आदिवासी भाषा हल्बी, गोंडी और भतरी में बाल साहित्य लेखन कार्यशाला का जिसमें हिंदी भाषा विशेषज्ञ के रूप में मेरी सहभागिता थी। इस कार्यशाला के माध यम से वहां अलग-अलग आदिवासी बोलियों के लेखकों से मिलना हुआ और जाना कि बस्तर की कई जनजातीय पारंपरिक बोलियों के लुप्त होने की उनके मन में कितनी टीस है। इस कार्यशाला के सिलसिले में बस्तर फिर कई बार जाना हुआ और जब इसके अंतिम चरण में मार्च 2014 में कोंडागांव गई तो वहीं डॉ.राजाराम त्रिपाठी (संपादक,ककसाड़) से मुलाकात हुई और उनके सहयोग और संरक्षण में जनजातीय चेतना पर आध रित पत्रिका की रूपरेखा बनने लगी जो ककसाड़ के रूप में आपके सामने है। एक बोली के लुप्त होने का अर्थ होता है उसके सदियों पुराने सस्कार, भोजन, कहानियां, खान-पान, कहावतें, मुहावरे, अपनी अस्मिता की पहचान यहां तक कि हस्तशिल्प और लोक व्यवहार का गुम हो जाना। डब्ल्यू. वी. ग्रिगसन ककसाड़ नवंबर 2019 19 जो 1940 के आसपास एबोरिजनल ट्राइब्स इनक्वारी अफसर बन कर आए थे उन्होंने आदिवासियों से संबंधि त कई पुस्तकें लिखीं। उनका एक कथन आदिवासी संर्दभ पुस्तकों के विषय में मशहूर है कि 'कितना कम किया है, कितना अधिक बाकी है' ने 1938 में अपनी पुस्तक ‘माड़िया गोंड्स ऑफ बस्तर' की भूमिका में उन्होंने एक ऐसे व्यक्ति का उल्लेख किया है कि . - जो बस्तर की 36 बोलियों को समझता " था। यानि आज से अस्सी साल पहले तक 36 बोलियां किसी न किसी रूप में मौजूद थीं। और आज बस्तर में मोटा-मोटी हल्बी और भतरी ही बची है।


न जाने कितनी संस्कृतियां भी बोली के रास्ते गुम हो गईं। हर आदिवासी . की आंखों में अपनी बोली-भाषा को परिभाषित करने, उन्हें लिपिबद्ध कर संग्रहित करने और अपनी सांस्कृतिक विरासत को समुचित स्थान मिलने का सपना तैरता रहता है। कभी बिना लिपि वाली भाषाओं को बोलने वाले लोगों की ओर से सोचें तो हमें एहसास हो कि यह कितना कष्टप्रद है। इसकी पुष्टि तब मेरे मन में और पुख्ता हुई जब पिछले दिनों में पुनः श्री पंकज चतुर्वेदी . जी जिनका लुप्त होती आदिवासी बोलियों को बचाने की मुहिम में महत्वपूर्ण स्थान है; उनकी देखरेख में पुनः झारखंड की लुप्त होती बोलियों पर दो चरण में बाल पुस्तकों की अनुवाद कार्यशाला का नेशनल बुक ट्रस्ट की ओर से आयोजन किया गया। उसमें भी मेरी उपस्थिति • इसमें संदेह नहीं कि जनजातीय बोली के पुराने गीत, लोककथाएं उनके इतिहास हमारी संस्कृतिक सभ्यता को रही। खोज निकालने में बहुमूल्य स्रोत सिद्ध हुए हैं। 'प्रागैतिहासिक युग' में निषाद प्रजा बसती थी जो भारतीय संस्कृति की जन्मदात्री है। ख्यात पुरावस्तुविद् डी.डी. कोसाम्बी निषाद को ही 'भील' मानते हैं। भारतीय सभ्यता के विकास में इन आदि-भीलों का अनन्य योगदान रहा है। उन्होंने ही यहां नूतन पाषाणयुग की सभ्यता का विकास किया और इस संस्कृति ने ही प्रागैतिहासिक युग से भारतीय-संस्कृति को चेतना दी है.


आदिवासियों ने अपनी भाषा का स्रोत खोजने की कोशिश की है। मोराजी देवगम ने मुंडारी शब्दों को नामीबिया, मंगोलिया, नाइजीरिया और जर्मनी की भाषाओं तक में खोजा है उनका कहना है कि मुंडारी भाषा और उसका ‘दुपुव' यानी उनकी मूल संस्कृति ही विश्व मानव समाज की जननी हैवाचिक परंपरा के सहारे उस क्षेत्र का . इतिहास भी मुखरित होता रहा है। बस्तर बहुतेरे जनजातीय समुदाय बाहर से . आए हुए हैं किंतु उन्हें यहां आए लंबा अर्सा गुजर चुका है और वे वहीं के होकर रह गए हैं। उन्हें अपने मूल स्थान । की याद भी नहीं रही। यह तथ्य यहां " की विभिन्न जातियों, जनजातियों के बीच प्रचलित लोकगीतों से स्पष्ट होता है। उदाहरण के लिए कलार और पनारा जाति के विवाह गीतों में छत्तीसगढ़ी भाषा की प्रचुरता है इससे यह अनुमान होता है कि ये जातियां छत्तीसगढ़ी परिवेश से आई हैं। लाला जगदलपुरी एवं सोन सिंह पुजारी का नाम इस क्षेत्र में ख्यातिप्राप्त नाम है उन्होंने हल्बी बोली-भाषा बचाने के लिए बहुत काम किया है। आज अंहकारी अमीरी के समय में लोग अपनी आदिम भाषाओं को हेय दृष्टि से देखते हैं। इसलिए हमारी आदिम भाषाएं ज्ञान का भंडार होने के बावजूद न तो ज्ञान की भाषा रहीं और ही जुबान की। जैसे कल के दिन से आने वाला कल का दिन पैदा होता है, जो कि भविष्य और वर्तमान दोनों का प्रतिनिधित्व करते हुए अतीत में शामिल जाता है इसी तरह नयी भाषा भी पिछली भाषाओं के कारण ही जन्म लेती है।


भाषा जब महासागरों की भांति उमड़ती-घुमड़ती है, तभी मनुष्य की स्वस्ति और स्वाधीनता के सवाल भी उछाल मारते हैं .भाषा और आदमी एक-दूसरे से नाभि-नालबद्ध हैं, इस तथ्य से अवगत होते हुए भी अगर आज हमारी भाषा या जनजातीय भाषा-बोली में कोई बड़ी उमड़न-घुमड़न नहीं है और वह विलुप्त हो रही है हमें उसे संरक्षित नहीं कर पा रहे है, तो इसके कारण भी कहीं न कहीं जरूर हममें ही मौजूद होंगे। इसी संदर्भ में यह शीर्षक आज के . विमर्श के लिए मौजू हैऔर अंत में आज वर्ल्ड हार्ट डे है। ककसाड़ के पाठकों के मन मस्तिष्क में ककसाड़ की धड़कन बनी रहे इस यही कामना है। धन्यवाद।